राजनीति का मैदान बनतीं भाषा और बोलियां
लेखिका: शची मिश्रा
स्वतंत्रता के बाद जिस समय सारे देश में भाषा के आधार पर प्रांत निर्माण हो रहा था, उस समय राज्यों ने डॉ आंबेडकर की सलाह कि ‘संविधान में प्रावधान हो कि प्रत्येक राज्य की राज्य भाषा वही होगी जो केंद्र सरकार की होगी’ को दरकिनार करके अपनी-अपनी भाषाओं को अधिकारिक राजभाषा बना लिया।
उस समय हमारे प्रदेश में अनेक राज्यों को मिला कर विशाल हिंदी प्रदेश के गठन का आंदोलन नहीं चला। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश को ही विभाजित करने की बात राजनेता करते रहे। यह विभाजन प्रक्रिया आज तक चल रही है। उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ नए राज्य बने। छत्तीसगढ़ ने तो कुछ बोलियों को मिलाकर छत्तीसगढ़ी बना दी और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके राजभाषा बना कर केंद्र के पास आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव भेज दिया। इस प्रकरण का सबसे घातक पहलू यह रहा कि छत्तीसगढ़ी को स्थापित करने के लिए हिंदी विरोध का तरीका अपनाया गया।
जिस तरह से भाषा को आधार बना कर राज्य बन रहे हैं या बनाने का प्रयास हो रहा है, उसको देख कर चिंता होती है कि इसकी आड़ में बहुसंख्यक धार्मिक, जातीय या सांप्रदायिक समुदाय सत्ता का दुरुपयोग करके उन्हें आमने सामने न खड़ा कर दें। जैसा कि भोजपुरी और राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने की प्रक्रिया में दिखाई दे रहा है। पूछा जा सकता है कि हिंदी की कोई भी बोली अगर आठवीं अनुसूची में शामिल कर ली जाती है तो उसमें हिंदी वालों को आपत्ति क्या है? दरअसल आपत्ति आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल करने पर नहीं बल्कि उस सोच पर है जिसके तहत ऐसा किया जा रहा है। एक ही भाषा की दो बोलियों को एक-दूसरे के सामने राजनीतिक हथियार के रूप में खड़ा करना क्या उचित है? साथ ही भाषा के आधार पर बने राज्यों से लोगों को कोई लाभ होता है या नहीं इसका भी मूल्यांकन जरूरी है। क्या आने वाले दिनों में भोजपुरी, मगही, अंगिका, मैथिली में स्कूली या उच्चतर शिक्षा दी जाएगी?
मैथिली ने अनुसूची में स्थान पाने के बाद भाषा के तौर पर अपना विकास करने और अंग्रेजी का स्थान लेने की दिशा में रत्ती भर भी इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। भारतीय भाषाएं अंग्रेजी के मुकाबले में कितनी सिमट चुकी हैं इसका अंदाज इन भाषा प्रेमियों को नहीं है।
आज राजनीति में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां महत्वपूर्ण भूमिका निभा नहीं हैं। क्षेत्रीयता के उभार ने भाषाई अस्मिता के संघर्ष को बल दिया है। मगर भाषा की राजनीति में भाषाओं के विकास का मुद्दा गौण होता जा रहा है। भाषाई कट्टरता का विस्तार हो रहा है।
कुछ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र में भाषा को लेकर उत्तर भारतीयों पर हमले किए गए थे। बंगाल के भीतर ही उत्तर बंगाल में नेपाली और दक्षिण बंगाल में बांग्ला भाषा के नाम पर विरोध बना हुआ है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश और बिहार में कोई मतभेद नहीं है, किंतु भाषा का प्रश्न खड़ा होते ही प्रांतों में विरोध खड़ा हो जाएगा।
हमारी मुख्य लड़ाई अंग्रेजी से होनी चाहिए जो हमारी क्षेत्रीय बोलियों के साथ-साथ हिंदी को भी निगलती जा रही है। हिन्दी संख्या बल के कारण ही राजभाषा के पद पर आसीन है, संख्या बल कम होते ही अंग्रेजी के पक्षधर अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने की मांग करने लगेंगे।
सचाई तो यह है कि मूलभूत राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर पर्दा डालने के लिए भाषा के मुद्दे को उछाला जाता है। जब विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे थे, बुंदेलखंड में पानी के लिए हाहाकार मचा था तभी मराठी बनाम हिंदी का मसला सामने आया जिसने विदर्भ और बुंदेलखंड की समस्या को पीछे धकेल दिया। आज बिहार और उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक कमजोरी और अराजकता ने भोजपुरी के मुद्दे को उछाला है। भाषाई अस्मिता के घेरे से बाहर निकल कर देखें तो वृहत स्तर पर देश की चुनौतियों की पहचान की जा सकती है और इसी पहचान में ही उनका समाधान छिपा हुआ है।
(https://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/language-dialects-and-politics/)
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