शख्सियत: बांग्ला संस्कृति का अक्षर पुरुष सतीनाथ भादुड़ी
ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ कई गतिविधियों में शामिल रहने के कारण उन्हें तीन बार जेल की यात्रा करनी पड़ी। जेल में जयप्रकाश नारायण, फणिभूषण सेन, श्री कृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह के साथ उन्हें रहने का अवसर मिला। जेल में रहते हुए ही उन्होंने ‘जागोरी ’नामक प्रसिद्ध उपान्यास लिखा था। वे लोक संस्कृति के चितेरे तो थे ही लोक संघर्ष से गहरे जुड़े हुए भी थे। कटिहार जूट मील में हड़ताल का एक दौर में उन्होंने नेतृत्व किया था।
औपनिवेशिक पराधीनता के लंबे दौर से बाहर निकलने के बाद अब जब हम तब के साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश के बारे में पढ़ते-जानते हैं तो साफ लगता है कि रचनात्मकता अभाव और संघर्ष के दौर में स्थगित तो नहीं ही होती, बल्कि उसका श्रेष्ठ रूप उसी दौर में सामने आता है। इस भूमिका के साथ बांग्ला साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी की चर्चा करें तो वे सबसे पहले हमें देश के उस सांस्कृतिक भूगोल या सांस्कृतिक बहुलता वाले परिवेश से अवगत कराते हैं, जिसे हम पुरबिया संस्कृति की बांग्ला छटा कह सकते हैं।
एक ऐसी छटा जिसमें मैथिली, अंगिका, संथाली और बांग्ला बोली-परंपरा के विविध रंग समाए हैं। बिहार तब बंगाल का ही हिस्सा हुआ करता था। वर्तमान में बिहार का पूर्णिया जिला बंगाल की सीमा को छूता है। अगर बांग्ला साहित्य में पूर्णिया के योगदान की चर्चा करें तो वह अविस्मरणीय है। सतीनाथ भादुड़ी का जन्म पूर्णिया में ही हुआ था। उनके साहित्य का स्थान बांग्ला साहित्य में काफी ऊंचा है।
सतीनाथ का जन्म 27 सितंबर 1906 में हुआ था। उनके पिता का नाम इंदूभूषण भादुड़ी था, जिनके नाम पर पूर्णिया की दुर्गाबाड़ी में इंदूभूषण पब्लिक लाइब्रेरी है। सतीनाथ ने लिखना तो बहुत बाद में शुरू किया। इससे पहले उनकी पहचान एक अच्छे राजनीतिज्ञ और बड़े समाज सुधारक के तौर पर कायम हो चुकी थी। वे अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी भी थे। महात्मा गांधी के आह्वान पर वे सत्याग्रहियों की टोली में शामिल हो गए थे।
ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ कई गतिविधियों में शामिल रहने के कारण उन्हें तीन बार जेल की यात्रा करनी पड़ी। जेल में जयप्रकाश नारायण, फणिभूषण सेन, श्री कृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह के साथ उन्हें रहने का अवसर मिला। जेल में रहते हुए ही उन्होंने ‘जागोरी ’नामक प्रसिद्ध उपान्यास लिखा था। वे लोक संस्कृति के चितेरे तो थे ही लोक संघर्ष से गहरे जुड़े हुए भी थे। कटिहार जूट मील में हड़ताल का एक दौर में उन्होंने नेतृत्व किया था।
उस जमाने में पूर्णिया दुर्गाबाड़ी में बली प्रथा काफी प्रचलित थी। सतीनाथ शक्ति उपासना की परंपरा से अवगत तो थे, बंगाली होने के कारण इसके प्रति उनके मन में स्वाभाविक श्रद्धा भी थी। पर वे बलि प्रथा को इस श्रद्धा के विपरीत मानते थे। एक जागरूक समाज सुधारक के तौर पर उन्होंने इस जघन्य प्रथा का कारगर विरोध किया और सफल रहे। उनका सुधारवादी कदम यहीं नहीं थमा। आगे उन्होंने शराबबंदी से लेकर कई अन्य सामाजिक कुरीतियों के प्रति लोगों को जागरूक किया और एक स्वच्छ समाज रचना की सांस्कृतिक मिसाल पेश की।
यह वर्ष हिंदी उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मशती वर्ष है। रेणु के साहित्यिक मिजाज और उनकी आंचलिकता के बारे में कोई भी बात सतीनाथ की चर्चा के बिना अधूरी है। रेणु उन्हें अपना गुरु मानते थे। रेणु ने सतीनाथ पर एक निबंध भी लिखा है। रेणु और वे जेल में भी साथ रहे थे। सतीनाथ ने दस उपन्यास, कई लघु कथाएं और ग्यारह निबंधों की रचना की है। उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में ‘जागोरी’, ‘ढोढ़ाय चरित मानस’, ‘काकोरी’, ‘संकट‘ और ‘दिग्भ्रांत‘ आदि हैं।
‘ढोढ़ाय चरित मानस’ पूर्णिया और आसपास के लोक परिवेश को समझने के लिए बांग्ला और हिंदी दोनों ही भाषा में एक असाधारण कृति है। आलम यह है कि कई लोग रेणु की प्रसिद्ध औपन्यासिक कृति ‘मैला आंचल’ को सतीनाथ के इस उपन्यास की छाया मानते हैं। पर इन दोनों साहित्यकारों के आत्मीय संबंध को देखते हुए इस विवाद में जाना निरर्थक है। 30 मार्च 1965 को अपने देहावसान से पहले सतीनाथ ने साहित्य और संस्कृति की दुनिया को जो दिया, वह हम सबके लिए आज प्रेरणा का अक्षर सुलेख है।
Source: https://www.jansatta.com/sunday-magazine/bengali-litterateur-satinath-bhaduri-reflects-on-the-best-form-of-creativity-in-times-of-scarcity-and-struggle/1529496/
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