विलुप्त हो रही इन लिपियों को जिंदा रखने की जिद में जुटे 'ये' जानकार
By Digital Bihar desk | Updated Date: Jan 9 2018 5:21PM
सुजीत कुमार
पटना : अपने देश की एक कहावत है, कोस कोस पर पानी बदले, चार कोसा पर बानी. यानी लिपि और भाषा की दृष्टि से हमारा देश शुरू से ही समृद्ध रहा है. भाषा-जगत जितना अनूठा, विस्तृत और अगल है. उससे जरा भी कम लिपियों का संसार नहीं है. जितनी पुरानी मानव सभ्यता है, लिपियों का इतिहास भी करीब-करीब उतना ही है. कालांतर में कई लिपियों को पढ़ने में सफलता मिली है, लेकिन ऐसी कई लिपियां हैं, जो आज भी अबूझ हैं और उनके बारे में जानकारी हासिल करना बचा हुआ है. कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो विलुप्त होती इन लिपियों को बचाने के लिए लगे हुए हैं. इनका मानना है, इन लिपियों को जानने के बारे में अगर परंपरा जारी नहीं रही तो यह भविष्य के लिए काफी अफसोसजनक होगा. ये लोग अपने स्तर पर ब्राह्मी, मुगल कालीन भाषा व कैथी भाषा को अपने स्तर पर प्रसार करने में लगे हैं. साथ ही लोगों को अवेयर भी कर रहे हैं.
हर पल बस लिपि के बारे में जानकारी का जुनून
पटना के निवासी अनंत आशुतोष द्विवेदी का नाम भी ऐसे ही लोगों में शामिल है, जो ब्राह्मी लिपि के प्रचार प्रसार के लिए लगातार काम कर रहे हैं. करीब 11 सालों से इस क्षेत्र में कार्य करने वाले अनंत कहते हैं, हमारे देश की कई लिपियां हैं, जो अब भी रहस्य और कौतूहल का विषय बनी हुई हैं. ब्राह्मी लिपि के बारे में जानकारी देने के लिए लगातार कोशिश कर रहे अनंत बताते हैं, ब्राह्मी भारत की अति प्राचीन लिपि है. अगर भाषा विज्ञानियों की बातों पर यकीन किया जाये तो मध्य युग में यह लिपि देश के एक बड़े भूभाग में प्रचलित थी.
ऐसी मान्यता है कि ब्राह्मी लिपि से ही अनेक एशियाई लिपियों का भी विकास हुआ है और इस लिपि को करीब दस हजार साल पुराना माना जाता है. चक्रवर्ती सम्राट अशोक के अनेक शिलालेख इसी लिपि में अंकित हैं. अशोक महान ने ब्राह्मी लिपि को धम्म लिपि नाम दिया था तथा महात्मा बुद्ध से जुड़े उपदेश इसी लिपि में अंकित कराये थे.
राज्य में है इस लिपि वाले कई स्थल
प्राचीन भारतीय इतिहास व पुरातत्व विज्ञान व आर्कियोलॉजी में पीजी डिप्लोमा कर चुके अनंत कहते हैं, अपने बिहार में इस लिपि के होने के कई जगह हैं. जहानाबाद स्थित सबसे पुरानी मानव निर्मित गुफा माने जाने वाली बराबर की गुफा में भी इस लिपि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है. वह कहते हैं, सम्राट अशोक ने धम्म का प्रचार प्रसार किया तो अपने अवशेष में गुफा, स्तंभलेख व शिलालेख में ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा को उद्घृत करवाया. वह कहते हैं, आर्कियोलॉजिकल प्रमाण से यह निर्विवादित सत्य है कि देश की पहली लिपि ब्राह्मी को ही माना जाता है. इसके बाद ही अन्य लिपियों का विकास हुआ है. वर्तमान देवनागरी लिपि इसी का अंश है जो उत्तरोत्तर विकास के क्रम में यहां तक पहुंंची है.
भाषा उन्नयन के लिए करते हैं काम
आशुतोष बताते हैं, करीब सात साल पहले पश्चिम चंपारण के गौनाहा में एक ताम्रपट मिला, जिस पर ब्राह्मी लिपि में कुछ लिखा हुआ था. तत्कालीन संग्रहालय निदेशालय ने इस लिपि को पढ़ने के लिए मुझसे संपर्क किया. जब मैंने उसका अनुवाद किया तो पता चला कि उसमें दसवीं सदी की बातों का जिक्र किया गया था और पाल कालिन शासन के कालखंड में क्षेत्रिय शासकों के वंशावली की जानकारी दी गयी थी. अनंत ब्राह्मी लिपि के विस्तार के लिए न केवल हेरीटेज टॉक शो का आयोजन करते हैं बल्कि विभिन्न स्कूलों में संपर्क कर के वहां के छात्रों के लिए इस तरह के टूर करवाते हैं. वह कहते हैं, फिलहाल बिहार में इस लिपि को पढ़ने वाला और कोई नहीं है. मेरी कोशिश है कि आम लोग देश के प्रमाणिक विरासत के बारे में जाने और इसके लिए इस लिपि को जानना बहुत जरूरी है.
मिथिलाक्षर लिपि का प्रयोग
उत्तर बिहार एवं नेपाल के तराई क्षेत्र की मैथिली भाषा को लिखने के लिये किया जाता है. आम तौर पर इस लिपि को मैथिली लिपि और तिरहुता भी कहा जाता है. इस लिपि का प्राचीनतम नमूना दरभंगा जिला के कुशेश्वरस्थान के निकट तिलकेश्वरस्थान के शिव मंदिर में है. इस मंदिर में पूर्वी विदेह प्राकृत में लिखा है कि मंदिर कात्तिका सुदी यानी कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा शके 125 (अर्थात 203 इस्वी में बना था. इस मंदिर की लिपि और आधुनिक तिरहुता लिपि में बहुत कम अंतर है.
भवनाथ झा कर रहे हैं इस लिपि को बचाने की पहल
मिथिलाक्षर को जानने वाले बहुत कम ही लोग बचे हुए हैं. पटना के महावीर मंदिर स्थित पब्लिकेशन व रिसर्च डिपार्टमेंट के प्रकाशन पदाधिकारी भवनाथ झा भी इस लिपि के जानकारों में से एक हैं. वह कहते हैं, इस लिपि को जानने वालों की संख्या बहुत कम ही बची है. जिसमें दरभंगा स्थित कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के डॉक्टर शशिनाथ झा, गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट इलाहाबाद के पूर्व अध्यापक किशोर नाथ झा, पंडित गोविंद झा जैसे लोग है. वह कहते हैं, इस लिपि से मुझे शुरू से ही लगाव रहा है और 1980 से मैं इस लिपि पर काम कर रहा हूं.
समृद्ध रहा है इतिहास
श्री झा कहते हैं, 11वीं सदी से लेकर आज तक जितने भी अभिलेख हैं, ज्यादातर में मिथिलाक्षर का ही प्रयोग किया गया है. कोई कोई ही ऐसा है, जिसमें देवनागरी का प्रयोग किया गया है. वह बताते हैं, इस लिपि में सबसे पुराना अभिलेख मधुबनी के अंधराठाडी में कमलादित्य स्थान में प्राप्त हुआ था, जिसमें प्राप्त विष्णुमूर्ति के नीचे एक अभिलेख लिया गया था. इस अभिलेख में 1096 ईस्वी के कर्नाट वंश के बारे में जानकारी दी गयी है. अभिलेख से ही यह जानकारी मिलती है कि कर्नाट वंशी नान्यदेव के मंत्री श्रीधर ने इस मूर्ति को स्थापित किया था. इसके दरभंगा विश्वविद्यालय स्थित प्राचीन पुरातत्व विभाग के प्रांगण में ही एक स्तंभ मिला था, जिसमें 1341 ईस्वी के बारे में जानकारी दी गयी थी. श्री झा बताते हैं, मधुबनी के अंधराठाडी में ही एक मां तारा की मूर्ति मिली थी, जिसे मैंने डिसाइफर किया था. इसकी विशेषता यह है कि मिथिलाक्षर में बौद्ध मंत्र लिया गया है, जो कि बिहार में मिले कई अवशेषाें में मिला है.
लोग आये आगे तभी बचेगी लिपि
श्री झा कहते हैं, ऐसे अभिलेख भी मिले हैं, जिनमें यह ज्ञात होता है कि इस्ट इंडिया कंपनी के वक्त से लेकर आजादी के पहले तक करीब 90 प्रतिशत आबादी इस लिपि का प्रयोग करती थी. 19वीं सदी के अंत में देश की एकता व अखंडता के नाम पर दरभंगा राज की तरफ से राष्ट्रीय लिपि के रूप में देवनागरी व हिंदी का चयन किया गया. फिर इसके बाद लोगों का इस लिपि के प्रति झुकाव कम होता गया. वह कहते हैं, मिथिलाक्षर के यूनीकोड के लिए सीडैक पुणे द्वारा मुझे बुलाया गया था. मैंने वहां जाकर जानकारी भी दिया. लेकिन इसमें बड़ी मात्रा में त्रुटियां थी, जिसे सुधारने की सलाह मैंने दी थी.
कराते रहते हैं वर्कशॉप
इस लिपि का वजूद बचा रहे इसके लिए श्री झा कहते हैं, लोगों को इसके लिए खुद संज्ञान लेकर आगे आना होगा. तभी इस लिपि का वजूद बचा रहेगा. वह कहते हैं, अपने स्तर पर मैं खुद वक्त वक्त पर छात्रों को इसकी जानकारी देते रहता हूं. भागलपुर में एक संस्था है, जहां भारत सरकार के नेशनल मनुस्क्रिप्ट मिशन के तहत इस लिपि के बारे में जानकारी देने के लिए मुझे बुलाया गया था, जहां 30 छात्रों को मैंने इसके बारे में बताया. वह कहते हैं, इन लिपियाें को बचाने के लिए लोगों को भी अपने स्तर से आगे आना होगा. तभी मिथिलाक्षर के बारे में आने वाली पीढ़ी को जानकारी मिलेगी.
कैथी लिपि का भी रहा है समृद्ध
इतिहास कैथी लिपि एक ऐसी ऐतिहासिक लिपि है जिसे मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता था. वर्तमान उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी बड़ी संख्या में प्रमाण पाये जाते हैं. इस लिपि को कैथी या कायस्थी के नाम से भी जाना जाता है. तब पूर्ववर्ती उत्तर-पश्चिम प्रांत, मिथिला, बंगाल, उड़ीसा और अवध में इसका प्रयोग होता था. इस लिपि का प्रयोग विशेष रूप से न्यायिक, प्रशासनिक एवं निजी आंकड़ों को सहेज कर रखने के लिए किया जाता था. वर्तमान में इस लिपि के विलोपित होने का खतरा मंडरा रहा है. अभी भी बिहार समेत देश के कई उत्तर पूर्वी राज्यों में इस लिपि में लिखे हजारों अभिलेख सामने आते रहे हैं.
भैरव दास अकेले कर रहे हैं कोशिश
कैथी लिपि के बारे में भैरव दास कहते हैं, इस लिपि का इतिहास अन्य लिपियों से पुराना माना जाता है. मगधकाल में भी इस लिपि की उपस्थिति मिलती है. इससे पहले भी दो-तीन अन्य लिपियां उपयोग में आयी थी लेकिन आम जनता तक कैथी लिपि ही पहुंची. इसका करीब एक हजार साल का इतिहास है. ज्ञात हो कि भैरव दास इस लिपि पर अाधारित करीब 18 किताबों को लिख चुके हैं. जिसमें उन्होंने विस्तार से वर्णन किया है.
हर लिपि की मूल रही कैथी
भैरव बताते हैं, कैथी लिपि मूल रूप से जन की लिपि थी. वह कहते हैं, बिहार के कई पुरातन स्थानों पर इस लिपि के बारे में जानकारी मिलती रही है. भभुआ में एक पत्थर पर सबसे पहले इस लिपि के बारे में जानकारी मिलने का प्रमाण है. इसके अलावा काशी विश्वनाथ मंदिर व देवघर मंदिर का भी अभिलेख इस लिपि में ही मिलता है. जहां तक पांडुलिपि की बात है तो राज्य में कई ऐसे पुराने घर हैं, जहां ये पांडुलिपियां मिलती रहती हैं. वह कहते हैं, इस लिपि के साथ सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इसकी क्षमता को जानने की कोशिश किसी ने नहीं की और न ही किसी ने इस बारे में कभी सोचा. वह कहते हैं, मगही, अंगिका, बज्जिका और भोजपुरी की मूल भी कैथी ही है. भोजपुरी, मगही का पुराना दस्तावेज कैथी लिपि में ही मिलता है.
शेरशाह सूरी ने दिया बढ़ावा
भैरव बताते हैं, इतिहास में केवल एक शेरशाह सूरी ही ऐसा शासक था जिसने इस लिपि को बढ़ावा दिया. यहां तक की शेरशाह के मुहर में कैथी लिपि का प्रयोग होता था. सन 1200 के बाद से ही जमीन का दस्तावेज मिलता है और यह सब कैथी लिपि में ही मिलती है. वह बताते हैं, यह इतनी समृद्ध लिपि है कि राज्य के ज्यादातर कल्चरल हेरिटेज इसी लिपि में हैं. नवादा का धोबिया रामायाण, आरा का रामायण इसी लिपि में है. वह कहते हैं, 1956 में जब बिहार से बंगाल का विभाजन हो रहा था तब इस लिपि का अहम रोल सामने आया था.
बचाने की होनी चाहिए पहल
भैरव बताते हैं, यह लिपि बहुत ही समृद्ध रही है. इसे बचाने की पहल होनी चाहिए. वह कहते हैं, एएसआइ ने इसे मान्यता देने से इंकार कर दिया था. जब मैंने किताब लिखी तो इसे स्क्रीप्ट माना गया. वह कहते हैं, हमारे पुराने इतिहास इस लिपि में ही है, जब लोग इस लिपि को जानेंगे ही नहीं तो हमारे गुजरे सुनहरे अतीत को जैसे जानेंगे? मैंने तो राज्य सरकार से इस लिपि के लिए स्टेट स्क्रीप्ट की मांग की है. यह लिपि जिंदा रहे, ज्यादा लोग इसे जाने, इसके लिए वक्त निकाल कर वर्कशॉप व सेमिनार कराता रहता हूं. यह केवल मेरे स्तर का प्रयास है. अगर सरकार भी साथ दे तो इसके विकास में और कुछ किया जा सकता है. सीडैक पुणे अभी इस लिपि पर काम कर रहा है.
सूफी संतों के साथ आयी एरेबिक व पर्सियन लिपि
खुदाबख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक प्रो इम्तेयाज अहमद भी ऐसे लोगों में शामिल हैं, जो विलुप्त होती लिपियाें अरेबिक व पर्सियन को बचाने की कोशिश में हैं. वह कहते हैं, लिपि को समझना और जानना एक अलग बात है और उस लिपि के बारे में लोगों को उनके शब्दों में बताना अलग बात है. इस लिपि को जानने वाले बिहार में कई और लोग हो सकते हैं, लेकिन वह आम भाषा में बता सकने में शायद असमर्थ हो. जिससे हम मुगल काल के कई बातों को नहीं जान सकते हैं.
12वीं सदी से ही है इसका जिक्र
प्रो अहमद कहते हैं, बारहवीं सदी के शुरू से ही इस लिपि के बारे में जिक्र होता है. ऐसी मान्यता है कि बिहार में जब सूफी आये होंगे तो इस लिपि को लेकर आये होंगे. लिखित रूप में देखे तो 13वीं सदी के अंत से लेकर 18वीं सदी तक विभिन्न अभिलेखों में यह लिपि मिलती है. बिहारशरीफ दरगाह में इस लिपि में एक अभिलेख मिलता है. यह 1242 इस्वी के करीब का है. जिसमें यह बताया गया है इल्तुलमिश के समकालीन अबुल फतह तुग्ल नाम के सेनापति ने इसे बनाया था. इसके अलावा 1353 इस्वी में बिहारशरीफ के बड़ी पहाड़ी पर मलिक इब्राहीम के बारे में अभिलेख प्राप्त हुआ था. वह तुगलक काल में बिहार के गवर्नर हुआ करते थे. वह कहते हैं, इस लिपि में जितने भी अभिलेख मिले, वह किसी ने किसी इमारत के बनाने के बारे में जानकारी के बारे में थे. ज्यादातर में नस्ख भाषा का प्रयोग किया गया है. इसके अलावा 14वीं सदी में राजगीर के जैन मंदिर में एक अभिलेख मिला था, जिसमें यह बताया गया है फिरोजशाह ने बिहार से बंगाल जाते वक्त इस जैन मंदिर को दान दिया था.
पूरे बिहार में हैं अभिलेख
प्रो अहमद कहते हैं, तत्कालीन दक्षिण बिहार और आज के झारखंड को छोड़ दे तो पूरे बिहार में ज्यादातर अभिलेख अरेबिक या पर्सियन में ही मिलते हैं. वह कहते हैं, अरबी अरब से तथा पर्सियन इरान से मानी जाती है. अरबी के अभिलेखों में नस्ख, सुल्श व कूफी तीनों ही भाषाओं का प्रयोग मिलता है. अरेबिक में इस्लाम से जुड़े ज्यादातर साहित्य देखने को मिलते हैं, जबकि पर्सियन में इतिहास से जुड़ी या फिर साहित्य मिलते हैं. वह कहते हैं, बिहार से जुड़े मनुस्क्रिप्ट 16वीं सदी के ज्यादातर मिलते हैं.
ज्यादा से ज्यादा लोग जाने
प्रो अहमद कहते हैं, नेशनल मिशन ऑफ मनुस्क्रिप्ट 2004 में जब बनी थी, तब खुदाबख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी को नोडल एजेंसी बनाया गया था. उस वक्त काफी काम हुए. मेरा यह मानना है कि अरेबिक को लोग केवल प्रिंटेड टेक्स्ट में न पढ़े. जब लोग इन लिपियों को जानेंगे तो अपने विरासत के बारे में ज्यादा जानकारी मिलेगी. अरबी, पर्सियन को दूसरे सब्जेक्ट के साथ जोड़ने की पहल होनी चाहिए. वह कहते हैं, इन दोनों लिपियों के बारे में जानकारी देने के लिए समय समय पर मैं खुद पहल करता हूं. अगर एनजीओ या सेल्फ हेल्प ग्रुप भी आगे आयेंगे तो निश्चित ही इसका बड़ा असर देखने को मिल सकता है.
(Source- https://www.prabhatkhabar.com/news/patna/bihar-experts-trying-to-save-maithili-kaithi-brahmi-missing-script/1109681.html)
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