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Wednesday 8 July 2020

राजस्थानी, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी और अंगिका की सावनी कजरी की परंपराएं संगीत की भारतीय लोकशैली का सुलेख रचती हैं | Angika in Media

विशेष: बदरिया घेरि आइल ननदी

(जनसत्ता, 8 जुलाई, 2020)

भारत रत्न से सम्मानित शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहते थे कि लोकधुनों की खासियत ही यह है कि वह हर किसी के साथ अपना सुरीला नाता जोड़ लेती है। क्षेत्र और भाषा की सीमा अगर संगीत लांघती है तो इसाीलिए कि उसके विकास में लोकधुनों की बड़ी भूमिका रही है।

मिर्जापुर की एक बहुत मशहूर कजरी है, ‘बदरिया घेरि आइल ननदी…।’ सावनी गीत-संगीत से लेकर सुगम संगीत का शायद ही कोई कार्यक्रम हो, जो बिना इस गीत के माधुर्य के पूरा होता हो।

सावन और कजरी का रिश्ता काफी पुराना है। खांटी लोकगीतों से लेकर शास्त्रीय घरानों की लोकप्रिय बंदिशों तक कजरी गायन की सुरीली परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है। मिर्जापुर की एक बहुत मशहूर कजरी है, ‘बदरिया घेरि आइल ननदी…।’ सावनी गीत-संगीत से लेकर सुगम संगीत का शायद ही कोई कार्यक्रम हो, जो बिना इस गीत के माधुर्य के पूरा होता हो। पर शोभा गुर्टू और गिरिजा देवी से लेकर सोमा घोष तक को मशहूर करने वाली इस कजरी को अब अपने नए कद्रदानों की तलाश है।
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भारत रत्न से सम्मानित शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहते थे कि लोकधुनों की खासियत ही यह है कि वह हर किसी के साथ अपना सुरीला नाता जोड़ लेती है। क्षेत्र और भाषा की सीमा अगर संगीत लांघती है तो इसाीलिए कि उसके विकास में लोकधुनों की बड़ी भूमिका रही है। इस भूमिका का विस्तार गायन-वादन से लेकर लोक सौंदर्यबोध की अलग-अलग परंपरा से भी हमें जाने-अनजाने जोड़ता है।

संगीतकार नौशाद सहित कई संगीतकारों ने ऐसी कई पारंपरिक लोकधुनों का इस्तेमाल फिल्मों में किया और वे खासे कामयाब भी रहे। राजस्थानी, पंजाबी, बुंदेलखंडी, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही और अंगिका तक सावनी कजरी की न जाने कितनी परंपराएं संगीत की भारतीय लोकशैली का सुलेख रचती हैं।

इतनी समृद्ध और सुरीली परंपरा के आगे अलबत्ता तब जरूर आगे विकास और निबाह का संकट खड़ा हो जाता है जब ‘आज ब्लू है पानी-पानी…’ की धुन और थिरकन के नए आकर्षण के साथ हमें खींचने लगती है।

दरअसल, आज हम उस मोड़ पर खड़े हैं जहां हमें बरसात और समाज के बीच के बदले तानेबाने को नए सिरे से तो समझना ही होगा, नए सरोकारों और प्रचलनों पर भी गौर करना होगा। क्योंकि वह दौर अब कहीं न कहीं इकहरा पड़ता जा रहा है जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान हमारे जीवन की सांस्कृतिक दरकार को पूरे करते थे।

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