कॉलम - हमसे है मुंबई
ताकि बनी रहे हिंदी की अखंडता
क्या भोजपुरी और राजस्थानी के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की संभावना से हिंदी के मान-सम्मान व रुतबे पर विपरीत असर पड़ेगा? हिंदी सप्ताह पर जारी चर्चाओं के क्रम में जब इस मुद्दे पर गर्मा-गर्म बहसों का सिलसिला जारी है उनसे वाकिफ करा रहे हैं विमल मिश्र।
मुंबई प्रेस क्लब द्वारा कुछ वक्त पहले 'हिंदी बनाम क्षेत्रीय बोलियां' विषय पर आयोजित परिचर्चा में जब पक्ष-विपक्ष में गर्मा-गर्म बहस जारी थी बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश डॉ. चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने हिंदी के पक्ष में भावुक तर्क रखा, 'हिंदी को राजभाषा बनाने में गैर हिंदीभाषियों की बड़ी भूमिका रही है। ऐसे में जब भारत की सभी बोलियां बिखरने लगी हैं उन्हें संतुलित बनाने की जरूरत है, न कि हिंदी की जड़ को खोखली करने की।'
बहस का यह क्रम कुछ महीने पहले शुरू हुआ जब भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की चर्चाएं शुरू हुईं। मुंबई के हिंदी क्षेत्रों में तब से यह विषय औपचारिक और अनौपचारिक रूप से कई बार उठाया जा चुका है। विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय कुछ महीने पहले भारतीय भाषाओं के संरक्षण की लड़ाई लड़ रहे वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव व लेखिका चित्रा मुद्गल, आदि के साथ गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भेंट की बाबत बताते हैं जिसमें गृहमंत्री को देश के तीन हजार साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के हस्ताक्षर सौंपकर उन्हें इस संभावित कदम से हिंदी को होने वाली क्षति के बारे में बताया गया था।
प्रो. उपाध्याय बताते हैं, 'बोलियों का विकास कौन नहीं चाहता, लेकिन जब यह हिंदी की ही कीमत पर होने लगे तो सोचना पड़ेगा।' इसे आरक्षण से भी ज्यादा खतरनाक स्थिति बताते हुए उन्होंने भाषाई राजनीति के कुचक्र से सावधान किया, 'आज यदि हिंदी की बोलियां उससे अलग होती हैं तो 2050 तक अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी बोलने वालों से ज्यादा हो जाएगी। अंग्रेजी के पक्षधर तब उसे सरकारी कामकाज की भाषा बनाने की मांग करने लगेंगे। घटते संख्याबल के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषा बनने का उसका सपना भी चूर हो जाएगा।' चीन की मंदारिन भाषा का उदाहरण देते हुए जिसने अपनी 56 बोलियों के बल पर ही विश्वभाषा की मान्यता हासिल की है गोष्ठी में सुझाव दिया गया कि हिंदी की 38 बोलियों सहित देश की तमाम बोलियों के विकास के लिए सरकार कोई अलग व्यवस्था करे, ताकि इन बोलियों का टकराव हिंदी से न हो और ये भाषाएं भी प्राकृतिक रूप से फलें-फूलें।
जाने-माने हिंदी विद्वान और मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. रामजी तिवारी ने तंज कसा, 'भोजपुरी अंचल के कई रचनाकारों ने भोजपुरी के प्रति पूरा आदर रखते हुए भी खुद को हिंदी की सेवा से जोड़ा, लेकिन अब कुछ लोग भोजपुरी का सहारा लेकर राजनीति में ओहदेदार हो गए हैं ये लोग न हिंदी के हितैषी हैं, न भोजपुरी के। उन्हें सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने से वास्ता है।' ऐसे में जब भाषा के मुद्दे को कुशासन और मूलभूत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए उछाला जाने लगा हो हिंदी के समर्थकों का पूछना है कि क्या भोजपुरी, मगही, अंगिका, मैथिली आदि में स्कूली या उच्चतर शिक्षा दिए जाने की कोई योजना विचार में है?'
हिंदी की असोसिएट प्रोफेसर जयश्री सिंह ने चेताया, 'आज जब पूरी हिंदी पट्टी के एक होने पर भारत में हिंदी की यह दशा है तो सभी के अपनी बोली लेकर अलग हो जाने पर क्या होगा? तब तो पूरे भारत में हिंदी किसी की अपनी भाषा ही नहीं रह जाएगी। खुद भोजपुरी, अवधि और मैथिली की लड़ाई लड़ने वाले भी हिन्दी के बचाव के लिए कुछ नहीं बोल पाएंगे।' 'भारतीय भाषा अपनाओ' अभियान से जुड़े पत्रकार-संपादक विजय कुमार जैन ने सवाल किया, 'हिंदी की बोलियों को मान्यता मिल गयी तो ये बोलियां बोलने वाले हिंदी का प्रयोग करेंगे ही क्यों?'
--------------------------------------------------------------------------------------------हिंदी क्यों?
- - घरों में भोजपुरी, अवधी, ब्रज भाषा, आदि और लिखने पढ़ने का सारा काम हिंदी में-हिंदी भाषी क्षेत्र की जनता आम तौर पर द्विभाषिक होती है। पर, उनकी बुनियादी शिक्षा हिंदी में होती है, इसलिए 'भोजपुरी भाषी', 'राजस्थानी भाषी', आदि कहना न्याय संगत नहीं है।
--आखिर, जनसंख्या के आधार पर पर ही तो हिंदी देश की राजभाषा का दर्जा पाती है। ऐसे में एक बार राजस्थानी और भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा मिला तो छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, अंगिका, मगही, आदि को भी आठवीं अनुसूची में शामिल होने की मांग होने लगेगी।
-- एक वह जमाना था जब मराठी, बांग्ला, गुजराती, दक्षिण भारतीय भाषाओं और संस्कृत के विद्वानों ने अपनी भाषा को छोड़ कर हिंदी में विचारों का प्रचार प्रसार किया और आज यह हालत है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और पूर्वोत्तर में हिंदी भाषियों के विरुद्ध आंदोलन की नौबत आ गई है। राजनीति में जिस तरह से क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व बढ़ रहा है क्षेत्रीयता के उभार से भाषाई कट्टरता का खतरा और भी बढ़ेगा।
(http://navbharattimes.indiatimes.com/metro/mumbai/other-news/columns-we-are-mumbai/articleshow/60724405.cms)
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.