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Thursday, 14 September 2017

अंगिका के लोगों की शिकायत है कि मैथिली ने उनके साहित्य का बड़ा हिस्सा अपना बनाकर पेश किया और आठवीं अनुसूची में शामिल हो गई, इस तरह उसके साथ अन्याय हुआ है

हिंदी दिवस 2017 : हिंदीभाषी ही हैं हिंदी की ताकत



Published: Thu, 14 Sep 2017 10:48 AM (IST) | Updated: Thu, 14 Sep 2017 01:35 PM (IST)

By: Editorial Team, http://naidunia.jagran.com




हिंदी आज टूटने के कगार पर है। भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग तेज हो गई है। भोजपुरी के लिए प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरुपम, शत्रुघ्न सिन्हा, जगदम्बिका पाल, मनोज तिवारी आदि सांसदों ने समय-समय पर इस तरह की मांग संसद में की है। विगत 3 मार्च 2017 को बिहार की कैबिनेट ने सर्वसम्मति से ऐसा प्रस्ताव पारित कर गृहमंत्री को भेजा है। राजस्थानी के लिए अर्जुनराम मेघवाल कई बार मांग कर चुके हैं।


छत्तीसगढ़ी, मगही, अंगिका, कुमायूंनी गढ़वाली, हरियाणवी आदि को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग जोर पकड़ रही है, मगर हिंदी के सुविधाभोगी साहित्यकार कविता-कहानी लिखने और उसके लिए पुरस्कार-सम्मान के जुगाड़ में व्यस्त हैं। हिंदी के विखंडन का मुद्दा अभी उनकी चिंता में शामिल नहीं है। उन्हें इस बात का कोई इल्म नहीं कि यदि हिंदी की बोलियां हिंदी से अलग होकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिंदी का संयुक्त परिवार टूट जाएगा और देश को जोड़ने वाली हिंदी खंड-खंड होकर बिखर जाएगी। ऐसी दशा में साम्राज्यवाद की भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व और अधिक सुदृढ़ हो जाएगा। भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने की मांग करने वाले अपनी मांग के समर्थन में जिन आधारों का उल्लेख करते हैं, उनमें से अधिकांश आधार तथ्यात्मक दृष्टि से अपुष्ट, अतार्किक और भ्रामक हैं।


भाषा विज्ञान की दृष्टि से भोजपुरी भी उतनी ही पुरानी है जितनी ब्रजी, अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, कुमायूंनी गढ़वाली, मगही, अंगिका आदि। क्या उन सबको आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाना संभव है?


भोजपुरीभाषियों की संख्या बार-बार 20 करोड़ बताई जाती है, जबकि इस अवधारणा का कोई आधार नहीं है। वास्तव में, हिंदी समाज की प्रकृति द्विभाषिकता की है। हम लोग एक साथ अपनी जनपदीय भाषा भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि भी बोलते हैं और हिंदी भी। लिखने-पढ़ने का सारा काम हम लोग हिंदी में करते है? इसलिए हम एक साथ भोजपुरीभाषी भी हैं और हिंदीभाषी भी। इसी आधार पर राजभाषा नियम 1976 के अनुसार हमें क श्रेणी में रखा गया है और दस राज्यों में बंटने के बावजूद हमें हिंदीभाषी कहा गया है। वैसे भी सन 2001 की जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार भारत में भोजपुरी बोलने वालों की कुल संख्या 3,30,99497 ही है।


भोजपुरी हिंदी का अभिन्न् अंग है, वैसे ही जैसे राजस्थानी, अवधी, ब्रजी आदि और हम सभी विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों में इन सबको पढ़ते-पढ़ाते हैं। हिंदी इन सभी के समुच्चय का ही नाम है। हम कबीर, तुलसी, सूर, चंदबरदाई, मीरा आदि को भोजपुरी, अवधी, ब्रजी, राजस्थानी आदि में ही पढ़ सकते हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में ये सभी शामिल हैं। इनकी समृद्धि और विकास के लिए और प्रयास होने चाहिए।


यदि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो हिंदीभाषियों की जनसंख्या में से भोजपुरीभाषियों की जनसंख्या घट जाएगी। स्मरणीय है कि सिर्फ संख्या-बल के कारण ही हिंदी इस देश की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है। यदि यह संख्या घटी तो राजभाषा का दर्जा हिंदी से छिनते देर नहीं लगेगी। भोजपुरी के अलग होते ही ब्रजी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, बुंदेली, मगही, अंगिका आदि सब अलग होंगी। उनका दावा भोजपुरी से कम मजबूत नहीं है। रामचरितमानस, पद्मावत, या सूरसागर जैसे एक भी ग्रंथ भोजपुरी में नहीं है।


ज्ञान के सबसे बड़े स्रोत विकिपीडिया ने बोलने वालों की संख्या के आधार पर दुनिया के सौ भाषाओं की जो सूची जारी की है, उसमें हिंदी को चौथे स्थान पर रखा है। इसके पहले हिंदी का स्थान दूसरा रहता था। हिंदी को चौथे स्थान पर रखने का कारण यह है कि सौ भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, ढूंढाढी, हरियाणवी और मगही को शामिल किया गया है। साम्राज्यवादियों द्वारा हिंदी की एकता को खंडित करने यह ताजा उदाहरण है।


हमारी मुख्य लड़ाई अंग्रेजी के वर्चस्व से है। उससे लड़ने के लिए एकजुटता जरूरी है। भोजपुरी की समृद्धि से हिंदी को और हिंदी की समृद्धि से भोजपुरी को तभी फायदा होगा, जब दोनो साथ रहेंगी। आठवीं अनुसूची में शामिल होना अपना अलग घर बांट लेना है। भोजपुरी तब हिंदी से स्वतंत्र वैसी ही भाषा बन जाएगी जैसी बंगला, उड़िया, तमिल, तेलुगू आदि।


आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बाद भोजपुरी के कबीर को हिंदी के पाठ्यक्रम में हम कैसे शामिल कर पाएंगे? तब कबीर हिंदी के नहीं, सिर्फ भोजपुरी के कवि होंगे। क्या कोई कवि चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाए?


भोजपुरी घर में बोली जाने वाली एक बोली है। उसके पास न तो अपनी कोई लिपि है और न मानक व्याकरण। उसके पास मानक गद्य तक नहीं है। किस भोजपुरी के लिए मांग हो रही है? गोरखपुर की, बनारस की या छपरा की? कमजोर की सर्वत्र उपेक्षा होती है। घर बंटने से लोग कमजोर होते हैं, दुश्मन भी बन जाते हैं। भोजपुरी के अलग होने से भोजपुरी भी कमजोर होगी और हिंदी भी। इतना ही नहीं, पड़ोसी बोलियों से भी रिश्तों में कटुता आएगी। मैथिली का अपने पड़ोसी अंगिका से विरोध सर्वविदित है। अंगिका के लोगों की शिकायत है कि मैथिली ने उनके साहित्य का बड़ा हिस्सा अपना बनाकर पेश किया और आठवीं अनुसूची में शामिल हो गई। इस तरह उसके साथ अन्याय हुआ है।


संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को स्थान दिलाने की मांग आज भी लंबित है। यदि हिंदी की संख्या ही नहीं रहेगी तो उस मांग का क्या होगा? स्वतंत्रता के बाद हिंदी की व्याप्ति हिंदीतरभाषी प्रदेशों मे भी हुई है। हिंदी की संख्या और गुणवत्ता का आधार केवल हिंदीभाषी राज्य ही नहीं, अपितु हिंदीतरभाषी राज्य भी हैं। अगर इन बोलियों को अलग कर दिया गया और हिंदी का संख्या-बल घटा तो वहां की राज्य सरकारों को इस विषय पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है कि वहां हिंदी के पाठ्यक्रम जारी रखे जाएं या नहीं।


निश्चित रूप से भोजपुरी या हिंदी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भयंकर आत्मघाती है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और स्व. चंद्रशेखर जैसे महान राजनेता तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे महान साहित्यकार ठेठ भोजपुरी क्षेत्र के ही थे, किंतु उन्होंने भोजपुरी को मान्यता देने की मांग का कभी समर्थन नहीं किया। आज थोड़े से लोग, अपने निहित स्वार्थ के लिए बीस करोड़ के प्रतिनिधित्व का दावा करके देश को धोखा दे रहे है।


(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिंदी बचाओ मंच के संयोजक हैं)


http://naidunia.jagran.com/national-hindi-diwas-special-blog-on-hindi-diwas-by-experts-1315488




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