By Prabhat Khabar | Updated Date: Feb 22 2019 6:10AM
लेखक : दीपक सवाल
झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर और संताल परगना के अधिकांश लोगों की मातृभाषा खोरठा है. साथ ही यह राज्य के 15 जिलों की संपर्क भाषा है. खोरठा का अपना अति समृद्ध और व्यापक शब्द भंडार है.
खोरठा में किसी एक ही शब्द के 200 से भी अधिक पर्यायवाची शब्द हैं पर इसे विडंबना ही कहें कि इतनी समृद्ध भाषा की अपनी कोई समृद्ध साहित्यिक पत्रिका नहीं है. खोरठा साहित्य पिछले दो दशक से ‘लुआठी’ की ‘लौ’ के भरोसे है. खोरठा साहित्यकार गिरिधारी गोस्वामी उर्फ ‘आकाशखूंटी’ की यह जीवटता थी कि विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने ‘लुआठी’ के जरिये खोरठा साहित्य को आलोकित करने के लिए जूझ रहे हैं.
हालांकि, मधुपुर (देवघर) से धनंजय प्रसाद के संपादन में ‘इंजोर’ एवं धनबाद से महेंद्र प्रबुद्ध के संपादन में ‘परासफूल’ प्रकाशित होती है, पर दोनों ही पत्रिकाओं के वार्षिक होने के कारण इसकी व्यापकता और उपयोगिता का आकलन सहज किया जा सकता है. गंभीर चिता का विषय तो यह है कि खोरठा के विद्वानों, चिंतकों एवं सक्षम-समृद्ध लोगों के स्तर से भी इस दिशा में कोई गंभीर पहल-प्रयास नहीं हुआ.
धनबाद के आदि कवि श्रीनिवास पानुरी ने खोरठा पत्र-पत्रिका के प्रकाशन की अहमियत महसूस की थी. इसी को ध्यान में रख कर पानुरीजी के संपादन में जनवरी, 1957 में ‘मात्रिभाषा’ नामक खोरठा की पहली पत्रिका प्रकाशित हुई. अधिक दिनों तक यह प्रकाशित नहीं हो सकी. 1970 में ’खोरठा’ नाम से पाक्षिक अखबार का प्रकाशन धनबाद से प्रारंभ हुआ. कुछ समय के बाद यह भी बंद हो गयी.
1977 में विश्वनाथ दसौंधि ‘राज’ के संपादन में ’तितकी’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, पर दसौंधिजी ने बाद में खोरठा लेखन से ही किनारा कर लिया था. लंबे समय बाद जब ’लुआठी’ का प्रकाशन शुरू हुआ.
1983 में एके झा ने ’तितकी ’ नामक मासिक का रामगढ़ से प्रकाशन शुरू किया, पर जल्द ही बंद हो गयी. 2000 में 'सहिदान' देवघर से फल्गूनि मरिक कुशवाहा के संपादन में और 'धरतिथान' गिरिडीह से शिवनंदन पांडे ‘गरीब’ के संपादन में 2001 में निकली. 2007 में जगजीत सिंह (उड़ीसा) के विजय कुमार महापात्र ने गिरिधारी गोस्वामी के सहयोग से 'दुलरोउति बहिन' नामक बाल पत्रिका का प्रकाशन /संपादन शुरू किया, लेकिन यह भी अधिक दिनों तक नियमित नहीं रह सकी.
इन अभावों और संकटों के बीच खोरठा साहित्यिक पत्रिका की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आयी आकाशखूंटी की ‘लुआठी’.
अक्तूबर 1999 के प्रवेशांक के साथ बालीडीह खोरठा कमेटी ने इसका प्रकाशन शुरू किया. इसकी खास बात यह रही कि आकाशखूंटी ने ऐसे नये लोगों को लेकर टीम बनायी, जिनकी खोरठा जगत में कोई पहचान नहीं थी! परिणामतः इनके अंदर छुपा लेखकीय गुण सामने आने के साथ ही धीरे-धीरे ‘लुआठी’ में नये लेखकों की एक सशक्त टीम भी तैयार हो गयी. कुछ ही समय में ’लुआठी’ खोरठा लेखकों का मुख्य मंच बनता चला गया. लगातार 19 अंकों के प्रकाशन के बाद सितंबर 2009 में ’लुआठी’ को आरएनआइ से पंजीयन मिला.
‘लुआठी’ के प्रकाशन के पीछे भी कुछ घटनाएं जुड़ी हुई है. गिरिधारी गोस्वामी शुरू से पत्रकारिता से जुड़े थे और इस क्षेत्र में उनके पास अनुभव था. वह खोरठा के लिए कुछ करना चाहते थे. सो, उन्होंने ’तितकी’ को नियमित करने का कुछ सुझाव दिया.
आकाशखूंटी के अनुसार, कुछ गिने-चुने लोग लगे थे, जो वैचारिक स्तर पर भी इतने संकुचित थे कि दूसरे को प्रश्रय ही देना नहीं चाहते थे. ‘हम नहीं, तो कोई नहीं’ की मानसिकता से ग्रसित थे. खोरठा लेखन कुंठित हो चुका था.
श्रीनिवास पानुरी के गुजरने के बाद धनबाद की टीम बिखर चुकी थी. एके झा के आने के बाद वे ही केंद्र बिंदु बने. जब ’लुआठी’ का प्रकाशन शुरू हुआ, तो कुछेक को छोड़ नये-पुराने सभी रचनाकारों का सहयोग मिला. शुरू में ही इनके लगातार तीन लोकगीत अंक छपने से इन्हें काफी लोकप्रियता मिली, क्योंकि, लोकगीत अंक के संकलन में इन्हें वैसै लोगों का भी सहयोग मिला, जो लेखक नहीं थे.
यह स्वीकारने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए कि 'लुआठी' ने खोरठा पत्रकारिता को ऊंचाई देने में अहम भूमिका निभायी. इसके विशेषांक खोरठा साहित्य में दस्तावेज बनते गये. प्रमुख विशेषांक में लघुकथा अंक, लोकगीत अंक, श्रीनिवास पानुरी, एके झा श्रद्धांजलि अंक, शिवनाध प्रमाणिक, जनार्दन गोस्वामी, पंचम महतो, देबुलाल गोस्वामी केंद्रित अंक विशेष उल्लेखनीय हैं.
'लुआठी’ को यदा-कदा विवाद व आलोचनाएं भी सहनी पड़ी है. खासकर, 2003 में सुप्रसिद्ध खोरठा रचनाकार सुकुमार ने तत्कालीन मंत्री लालचंद महतो पर एक हिंदी लघुकाव्य प्रकाशित किया- 'लालचंद चरित मानस'. इस पुस्तक और लेखक पर कटाक्ष करते हुए 'लुआठी' के आवरण पर एक कार्टून और जनार्दन गोस्वामी की एक व्यंग्य कविता छापी गयी.
इससे सुकुमारजी खासे नाराज हुए और सभी प्रमुख साहित्यकारों को ‘लुआठी’ के खिलाफ पत्र लिखा. परिषद की बैठक में एक स्वर में सुकुमार के पक्ष में लोग हुए और ‘लुआठी’ की इस बात के लिए आलोचना की गयी. इस महत्वपूर्ण बैठक में ‘लुआठी’ के संपादक गिरिधारी गोस्वामी को अलग-थलग करने का प्रयास किया गया. इससे गिरिधारीजी भीतर से आहत हुए, पर अपने काम पर इसका असर नहीं होने दिया, बल्कि, दोगुनी शक्ति से आगे बढ़े.
केवल इनकी सक्रियता और जुनूनी कार्यक्षमता के चलते इनके कार्य को स्वीकार करने को सब बाध्य हुए. फिर तो, वह दिन भी आया, जब ‘लुआठी’ में प्रकाशित सामग्रियों को दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किये जाने लगे.
हालांकि, वर्तमान में ‘लुआठी’ भी संकट के दौर में ही गुजर रही है. कारण कि, यह आज भी गैर व्यावसायिक रूप में ही है. ऐसे में, ‘लुआठी’ की ‘लौ’ से खोरठा कब-तक आलोकित हो पायेगी, कहा नहीं जा सकता. सरकारी नीति से आकाशखूंटी की नाराजगी भी झलकती है. वे कहते है- 2011 में खोरठा को झारखंड की द्वितीय राजभाषा का दर्जा तो मिला, पर इसके विकास के लिए कोई अपेक्षित योजनाओं की शुरुआत नहीं की गयी.
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